उड़ जाते हैं जहाँ की होती ख़्वाहिश
कोई सरहद उनको रोक नहीं पाती
कोई मज़हब बना न पाता दबिश।
कैसे उड़ते हैं पंख फैला कर
कैसे ख़ुश होते हैं गीत गाकर
सारा आसमाँ बना ख़ैरख़्वाह
सब चहकते हैं उनको देख कर।
कितनी ख़ुशनुमा है उनकी ज़िंदगी
हर दरख़्त करता है उनकी बन्दिगी
जहाँ चाहते हैं बना लेते हैं नशेमन
हर मोड़ पे पलकें बिछाती ज़िन्दगी।
मैं तो थक गया हूँ इस ज़िन्दगी से मालिक
इन नफ़रतों से, इन दरिंदगीयों से मालिक
क्या हो गया है तेरे इन्सान को ऐ मालिक
अच्छा हो मुझे भी परिंदा बना दे मालिक।
ख़ैरख़्वाह = भला चाहने वाला।नशेमन = बसेरा।
ओम शान्ति:
अजित सम्बोधि
No comments:
Post a Comment