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Monday, August 30, 2021

Happy Birthday KK !

On this day, the unborn had been born
From his mother to be right away torn.
Although born within the prison walls
Vasudeva took him away, head-borne.

The unmanifest had become manifest
As if in answer to the relentless quest
of the yearning hearts, over the aeons.
His arrival put the eager hearts to rest.

Sire became son; impalpable , palpable.
What was impossible, became possible.
It was the most apocalyptic of all times.
Amity of the enchanter became feasible.

He was a darling of all, opulent or poor
Cowboy or a gopi, classmate or a ruler.
But there were few who could'nt grasp
The significance of Krishna's grandeur.

He lived amongst humans as a human
Underwent tribulations like any human
Suffered indignity & vituperation galore
He lived as the commonest of common.

What makes him look apart from the rest?
He being equal & yet quite above the rest?
It's his benign smile that played on his lips
Its enigma that made everyone feel, blest!

With Krishna in hearts, we can wish away
All the vicissitudes of life, in an easy way.
Everything passes in this transient world
With Kanhaai, we can smile hurdles away.

Om Shantih
Ajit Sambodhi.

Thursday, August 26, 2021

Will You Come......Pollyanna?

Here's not a pair of eyes awaiting
Nor any husky voice admonishing:
'You never carry your phone along
How to reach you, if it's alarming?'

The door stands ajar, way I had left
Here lies my book, upturned, bereft.
The living space bears...a stamp of
Soliloquy & its emptied warp & weft.

Oh my happenstance, o my solitude!
Where's gone thine benign beatitude?
The only thing that beckons me here
Is the ubiquitous silence of Infinitude.

This house used to be a home once
Inviting, loving, caring...every ounce.
Full of tranquility & balmy fragrance
Of unbroken elegance at first glance.

Now it is.. a pile of stones and bricks
And a bundle of multitudinous flicks.
Pollyanna.. it's not any longer a home
Will you come......to charm the matrix?

Om Shantih
Ajit Sambodhi.

Saturday, August 14, 2021

मालूम न था

सब कुछ होगा, मगर ऐसा होगा, हमें मालूम न था
ज़िन्दगी इतनी नामेहरबां होगी , हमें मालूम न था।

दिल था हमारा सीने में, धड़कता भी था हर शै पर
बेदस्तोपा हो जायेगा इस क़दर , हमें मालूम न था।

आसमां नीलफ़ाम था, चमकता था चांद भी उसमें
यकायक तूफ़ान से भर जायेगा, हमें मालूम न था।

गुल थे शाख पे, गुंचे भी थे, परिन्दे भी थे ख़ुशगुलू
शजर ही गिर पड़ेगा भरभराकर, हमें मालूम न था।

जहां भी क़दम रखते थे , चमन आबाद दिखते थे
ख़ुद का रोपा ही उजड़ जायेगा, हमें मालूम न था।

एक पुल होता था, बरवक़्त, दरिया पार करने को
वही बह जायेगा, बेवक़्त ऐसे , हमें मालूम न था।

कैसे उजड़ता है बसा घर, यह तो किस्सों में होता था
हमही बन जाएंगे किस्सा एक दिन, हमें मालूम न था।

जीते जी मर जाना किसको कहते हैं, हमें मालूम न था
सांस आती रहेगी, जान जाती रहेगी, हमें मालूम न था।

ख़्वाब बहुत ख़ुशदिल होते हैं, और हक़ीक़त संगदिल
जो चला गया वोह ख़्वाब था क्या? हमें मालूम न था।

नसीहत देने वाले ख़ूब मिलते हैं, साथ देने वाले नहीं
दोनों मिले थे एक में, छूट जाऐंगे, हमें मालूम न था।

सोचता था मुहब्बत में दर्द, फ़र्क़, और फ़र्ज़ रुलाते हैं
यादें भी रुलाया करती हैं, यह तो, हमें मालूम न था।

कुछ कह लेना, कुछ सुन लेना, यही तो करता था मैं
यह दस्तूर भी अधूरा रह जाएगा, हमें मालूम न था।

जिनकी ताउम्र ज़रूरत थी, उन्हें खो दिया है आज
अब खोने को कुछ बचा ही नहीं, हमें मालूम न था।

मैंने उनको वक़्त दिया, उन्होंने मुझको वक़्त दिया
यह साझेदारी ख़त्म हो जाएगी, हमें मालूम न था।

हम कद्र करते थे मिल कर, ज़िन्दग़ानी के अहद की
ज़िन्दगानी उधार की बन जाएगी, हमें मालूम न था।

कितने भी क़रीब हों, हर बात का पता नहीं चलता
इतनी चाहत होगी कि टूट जाएंगे, हमें मालूम न था।

लोग दिल में दिमाग़ को रखते हैं, मैं दिमाग़ में दिल को
दिल की सुनने में फ़कीर हो जाते हैं, हमें मालूम न था।

क्या दौर है, लोग समझते नहीं, समझा देते हैं, क़सम से
अपनी मुहिम में इतना क़ामयाब होंगे, हमें मालूम न था।

बुरा करने पर बुरा लगे यह तो लाज़िमी है ही, होना
अच्छा करने वाले भी नहीं भाते हैं, हमें मालूम न था।

चलती रहती है ज़िन्दगी सफ़र में बिला किसी हिचक के
वो भी तो थक जाती है एक वक्त पर, हमें मालूम न था।

कितने मसरूफ़ रहे थे हम तवक्कुल में साथ साथ
कौकब की भी एक उम्र होती है, हमें मालूम न था।

बेदस्तोपा= मजबूर। नीलफ़ाम= नीले रंग का।
शजर= पेड़। गुंचे= कलियां। संगदिल= पत्थर दिल।
बरवक़्त= हरवक़्त। ख़ुशगुलू= मीठी आवाज़ वाले।
अहद= paramountcy. मसरूफ़= busy.
तवक्कुल= total surrender to God.
कौकब= a very big and bright star.

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Wednesday, August 11, 2021

ले चल यहाँ से।

चल रे मनवा चल तू यहाँ से
ले ले बिदाई ले चल यहाँ से
मन नहीं लगता अब है यहाँ पे
मेरा सहारा गुम है यहाँ से।

सूना है आँगन, सूना बिछावन
सूनी दुपहरी, सूनी है चिलमन
सूने कँगूरे, सूने झरोखे
बिरही के जैसे बिलखे है दरपन।
किसके सहारे अब मैं रहूँगा
ले चल मुझको ले चल यहाँ से।

किसको सुनाऊँ मैं अपनी कथा
किसको दिखाऊँ मैं मन की व्यथा
जिसको हुआ है तजरबा ए ग़म
वो ही जाने ग़म की प्रथा।
मुश्किल ही लगता अब तो है जीना
जाना ही होगा मुझको यहाँ से।

कहाँ से लाऊँ अब वो सफ़ीना
कहाँ पे पाऊँगा अब वो नगीना
ऐ रब क्या तूने ये कर दिया
छीना है मुझसे मेरा ख़ज़ीना।
मुझको है तुझ पे बड़ा एतमाद
रहम कर उठा ले मुझे भी यहाँ से
रहम कर उठा ले मुझे भी यहाँ से।

तमामशुद।
क़दमबोस
अजित सम्बोधि।

Sunday, August 8, 2021

6 अगस्त 2021, शाम 5 बजे लगभग।

मैं बैल्कनी में बैठा था
मौसम बिल्कुल सूखा था
कुछ कुछ गर्मी सी भी थी
मैं असमंजस में डूबा था।

मैंने पलकें झपकी थीं
या जम्हाई सी ले ली थी
मुझको ठीक से याद नहीं
पर कुछ तो बात हुई सी थी।

वह मेरे ऊपर बरस रहा था
सावन बनके बरस रहा था
मैं भौंचक्का सा देख रहा था
औचक बादल बरस रहा था।

इतना बरसा, इतना बरसा
जितना तरसा, उतना बरसा
गरमी तो काफ़ूर हो गई
मन हरसा और तन हरसा।

छत पर बच्चे नाच रहे थे
संग संग छाते नाच रहे थे
बादल घड़घड़ सी करते थे
या डांस पे वो भी थिरक रहे थे?

अब सब कुछ है ठहर गया
सड़क पे पानी जमा हो गया
पेड़ खड़े हें धुले धुले से
बादल वादा निभा गया।

बादल क्या था बदल गया
पल में मौसम बदल गया
मैं सोच रहा क्या मसला है
क्या और भी कुछ है बदल गया?

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Thursday, August 5, 2021

सावन का महीना

बादलों का सफ़ीना है, सब कुछ बाक़रीना है
तैरते हैं हवाओं पर, ये सावन का महीना है।
              पानी की छमाछम है
               लहराता परचम है
               देखें जिधर भी, उधर
               मस्ती का आलम है।
               बजती है हर तरफ़ में
               खुशनुमाई की बीना है।
रिमझिम बरसता है बादल कि जैसे पशमीना है।

                 परिन्दे करते किलोलें
                 हवाऐं गाती हैं ग़ज़लें
                 पेड़ों की शाख़ें भी
                 मनचलों के जैसे झूलें।
                 मचलते हैं लख़्ते बादल
                 खोल करके सीना हैं।
    बादलों से झरती फुहारें, कि जैसे नगीना हैं।

                   दूर मैं जो झाँकता हूँ 
                   हरी चादर ही देखता हूँ 
                   आसमाँ से ज़मीं तक बस
                   ख़ुशनुमाई देखता हूँ।
                   नज़रों को हर छोर पर
                   दिखता ख़ज़ीना है।
     महकता है सारा गुलशन, समा रसभीना है।

                   मन की किताब में
                   दिल के इंतिख़ाब में
                   चुनने में है मुश्किल
                   जो कुछ है ख़्वाब में।
                   दुआओं की बरसात है
                  गुलाबी आबगीना है।
     फ़ीरोज़ी रोशनी में, परदा झीना झीना है।

सफ़ीना= कश्ती। बाक़रीना= in sync.
लख़्ते बादल=बादलों के टुकड़े। ख़ज़ीना=ख़ज़ाना।
इंतिखाब=choice. आबगीना=गुलाब जल की शीशी।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Monday, August 2, 2021

A Box of Mangoes

Recently, I was offered a box of mangoes
Mango is the fruit of my choice, as it goes.
Not for nothing is mango, the king of fruits
In its configuration, mellowness overflows.

As I picked up a mango , I thought of Thay
Yes, Thich Nhat Hanh, lovingly called Thay.
He's a Buddhist monk, Vietnamese, exiled,
Soulfully teaches mindfulness, all the way.

I saw the sun douse mango, in its warmth
And the wind rock it, within the bandwidth.
The rain drenched it with love, & the earth
Nourished, while birds furnished all mirth.

It was picked, packed, and brought to me
How many hands had shared love for me?
It's the manifestation of God's love for all
His magic runs the show, and it is all free!

Om Shantih
Ajit Sambodhi.