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Monday, June 28, 2021

Hi, Aspire For This!

Isn't there too much of mechanicality?
Which is not too good for workability.
Some awareness is needed to pitch in
& switch mechanicality with religiosity.

Mechanicality turns man into machine
Wherein he acts as a matter of routine
It's not congenial for man's real growth
It sustains him on robotized adrenaline.

If you do so much as close your eyes
And feel the dancing of breath pixies
And keep it going for a period of time
You shall be sensing it with open eyes.

That is when you do things relaxedly
Feeling scintilatingly, matter of factly.
The idea of doership won't touch you.
Work will happen by itself, ingeniously.

This is a state of mind worth attaining
If one can do it , it is worth bargaining!
People give high sounding words to it.
But I would say , it is quite fascinating!

Om Shantih
Ajit Sambodhi.

Wednesday, June 23, 2021

Want To Be Religious?

Want to be religious? Let go of religion.
There is a lot of baggage , with religion.
Religiosity makes you feel light & open.
Do you feel so, holding fast to Religion? 

Be religious, sans adherence to religion.
Religion is Managed! That is the reason.
To be religious, you don't need ritualism.
Your devoir is to connect to inner region.

There is religiosity , in the flight of a bird
In breaking of dawn, in opening of a bud
In the rainbow, set against skies , curved
In nature's wizardry, in melodies unheard.

Religiosity ferries you to your inner core
It connects you to your elemental nature
Believe me, you are very compassionate!
Religiosity but just mirrors your true color.

There's only one temple. Nature's temple.
You'll find God everywhere in this temple.
To be fair, temple's in God, God in temple.
Wonder of wonders! You are your temple! 

Om Shantih
Ajit Sambodhi.

Tuesday, June 22, 2021

20 जून 2021की पूर्व संध्या, हरिद्वार

थे आसमान में, बादल छाए हुए
कुछ नीला सा भूरा रंग लिए हुए
हवा भी धीरे से, सरसरा रही थी
इक ग़मग़ीन सा अंदाज़ लिए हुए।

गंगा मंत्रमुग्ध सी बहे जा रही थी
न शांत न बेचैन, बढ़े जा रही थी
लगता था जाना है कहीं दूर उसे
मिलने किसी से, चले जा रही थी।

मैं पैड़ियों पे ख़ुद को, सम्हाले हुए
खड़ा था पोटली हाथ में लिए हुए।
निरख रहा था, गंगा को बहते हुए
और आसमाँ को , भेद समेटे हुए।

ये मूक दर्शक हैं सदियों से यहाँ पे
देखा है तार तार दिलों को यहाँ पे
देखा है अपनों को जुदा होते यहाँ
जो सोचे थे साथ आने को यहाँ पे।

बादल को मुझ पर , तरस आ गया
वो आकर मुझ पर बरसने लग गया
पुजारी ने कहा , अब न देर कीजिए
पोटली को बहाने का वक्त आ गया।

वही जो कभी मेरी क़िस्मत रही थी
मैं ख़ुदा था, वो नाख़ुदा मेरी रही थी
वो सिमट कर, आज इस पोटली में
गंगा के हाथों में ,  सुपुर्द हो रही थी।

नाख़ुदा= नाव खेने वाली/ वाला।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Monday, June 21, 2021

ON THE EVE OF JUNE 20, 2021

On that fateful day , on the 20th of June
A knot was tied, a precursor to the boon
That life was destined to be; a great gift! 
54 years on, curtain falls, this afternoon.

Fire was witness on that day; sacred fire
That lit the fire of love to heart's desire.
Yes, the fire that burnt the dross of life
And turned the Span into a song on lyre.

Today, ever pure Ganga is the witness.
Ganga, who flows , in all her kindness
With the steadiness of consciousness
Breathing on the altar of timelessness.

Flow is not only of the masses of water
But especially of the spirit of the author
Of the beauty and charm of the cosmos.
Whatever goes to it's bosom is , Kocher!

One might say, we come from the stars
And from there we bring all that cheers.
So be it ! If there be a grain of truth to it
After sojourn , one goes home , to stars! 

Om Shantih
Ajit Sambodhi.





Wednesday, June 16, 2021

क्या हाल है?

मिलते ही उन्होंने पूछ ही लिया: क्या हाल है?
मैं सोचता ही रह गया, क्या कहूं क्या हाल है?

क्या जवाब इतना आसान है, जितना सवाल है?
क्या सवाल में छिपा नहीं है कोई और सवाल है?

आप चाहें तो, अंदाज़े ख़ुशफ़हमी में रह सकते हैं
और बड़े बड़े माकूल ए मौका जवाब दे सकते हैं।

पर दिल के अन्दर की बात तो और हुआ करती है
जो होंठों पर आ आ कर भी, रुक जाया करती है।

सुख दुख के धागों से बना ज़िंदगी का आशियाना
ताने बाने से ही बुना जाया करता हर शामियाना।

चाहे सिकन्दर हो या कलन्दर, वही एक कहानी है
ख़ुशी में ग़म, ग़म में ख़ुशी, एक तयशुदा रवानी है।

अंदाजे ख़ुशफ़हमी= सब बढ़िया है, ऐसा दिखाना।
माकूले मौका= मौके के मुताबिक।
आशियाना= घर। रवानी= flow.

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Sunday, June 13, 2021

नहीं आता

कुदरत का दस्तूर है , गया लौट कर नहीं आता
दिल को समझा दूं, मुझे वो सलीका नहीं आता।

दर्द से बढ़कर कोई रहनुमाा बन कर नहीं आता
पहुंच जाता वहां भी जहां से बुलावा नहीं आता।

वह क्या समझेगा किसी के दिल का, इज़्तिराब
जिसको आंख का एक आंसू बहाना नहीं आता।

आंसू बड़ी नियामत हैं , इस जहान में, साहिबान
जो आंसू टपकता है, अजनबी बन के नहीं आता।

समन्दर को लिए फिरते हैं दामन में ये जो बादल
बरसते हैं वहां भी ये, जहां कोई रहने नहीं आता।

दिल में न भरा हो, जब तक, रोशनी का समन्दर
ज़िन्दगानी में मुहब्बत का वो सेलाब नहीं आता।

इज़्तिराब= बेचेनी का सेलाब

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Thursday, June 10, 2021

गोशा

ये बैल्कनी का कोना भी ख़ूब लुभाया करता है
ये जामुन का पेड़ इसे गोदी खिलाया करता है।

सोचते होंगे तमाशाई हूं, इसलिए बैठा करता हूं? 
यह गोशा मेरा चारागर है इसलिए बैठा करता हूं।

कितने अफ़सानों का गवाह रह चुका है ये कोना
इसे ख़बर रहती है सारी, इसलिए, बैठा करता हूं।

था तो मैं बंजारा मगर बाशिंदा बना दिया था मुझे
फ़िर से बन्जारा बन जाऊं क्या? सोचा करता हूं।

हर लम्हा मेरे माथे पे उम्र का टीका लगा जाता है
मैं यादों का पुलिंदा खोल कर उसे सूंघा करता हूं।

वक़्त का झोला बख़ूबी कंधे पे लटकाए रखता हूं
रात में रात के कंधे पे सिर रखके सोया करता हूं।

तमाशाई= तमाशा देखने वाला।
गोशा= कोना
चारागर= हकीम

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।


Monday, June 7, 2021

चंद रुबाइयाँ

लोभोलाभ की पट्टी पर दौड़ता इंजन
हवा हवाई हुआ सरपट, उड़ता इंजन
ज़िन्दगी गोया, तख़्ते सुलेमान हो गई
शेखचिल्ली जैसे सीटी बजाता इंजन।

इस भागमभाग की ज़िन्दगानी में
बदहवासी और क़सीदाख़्वानी में
आदमी है ये समझता , नायक तो
एक वही , इस तूफ़ानी कहानी में।

आदमी ख़ुद को अमर समझता है
आख़िर तक, पकड़ पूरी रखता है
क़फ़न पे ख़र्च होगा , इसके सिवा
हरेक दमड़ी, का हिसाब रखता है।

दौलत कमाने में जिस्म को गँवा दिया
उसे दुरुस्त करने में ज़रको लुटा दिया
ज़िंदगी चुकती चली जीना आया नहीं
उल्फ़त लुटाने का, अवसर गँवा दिया।

किसी के चाहने से सब कुछ हो नहीं सकता
ज़िंदगी दरिया बहता हुआ, रुक नहीं सकता
किसी को रोना, किसी को हँसना नहीं आता
रंग बिरंगा है गुलशन, एकका हो नहीं सकता।

कहीं इल्हाम होता है, कहीं एहसास होता है
बड़ी मुश्किल से कभी, ऐसा ऐजाज़ होता है
कहीं फ़ासले घटते हैं, दूरियाँ कम नहीं होती
कहीं जुदा राहोंपे सायोंका इत्तिफ़ाक होता है।

लोग मुझे दीवाना समझते हैं
मेरे दामन से उलझते रहते हैं
अपनी तलाश में, भटकता हूं
मेरे साथ वो क्यों, भटकते हैं?

ग़लत सोचते हैं मुझे भीड़ की ज़रूरत है
मुझे, भीड़ की नहीं , ग़ैरत की ज़रूरत है
मेरी महफ़िल, भीड़ से नहीं, सजा करती 
मुझे तो एक अदद इन्सान की ज़रूरत है।

है अँधेरी अमावस मगर चुभती नहीं
धूप, खिलती यहाँ, मगर चुभती नहीं
ये जो खुला आसमाँ, राज़दाँ, है मेरा
हर तरफ़ है यकीं, कोई बेवफ़ा, नहीं।

लोभोलाभ= लोभ और लाभ।
तख़्ते सुलेमान= mythical aeroplane.
क़सीदाख़्वानी= बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना।
ज़र= स्वर्ण। उल्फ़त= प्यार।
इलहाम= divine intuition. ऐजाज़= चमत्कार।
इत्तिफ़ाक= अचानक, मिलना। ग़ैरत= ख़ुद्दारी।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Friday, June 4, 2021

रक्खा है

भला दुनियाँ में क्या रक्खा है
सब कुछ तो दिल में रक्खा है।

जोभी दुनियाँ से कह नहीं पाते
उसको दिल में छिपा रक्खा है।

दिल से बढ़ कर, दोस्त कौन है
सब कुछ इसे ही बता रक्खा है।

हरेक अपना फ़ायदा ढूँँढता है
सबको बताने में क्या रक्खा है।

आसमाँ से बड़ा निगहबाँ कौन
सभी कुछ उसे दिखा रक्खा है।

लोग मरने पर धोते हैं, सजाते हैं
मैंने ज़िंदा दिल में सजा रक्खा है।

आहोदर्द कहीं बाहर रिस न जाऐं
मुँह पे इक ढक्कन लगा रक्खा है।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Tuesday, June 1, 2021

एक दर्जी (ओशो की कहानी के मुताबिक)

एक दर्जी था बड़ा नेक इन्सान
छोटी सी दुकान, थोड़ा सामान
बस एक ख़्वाहिश थी, दिल में
लौटरी मिले, जीना हो आसान।

एक दिन लौटरी निकल भी गई
उस रात उसकी नींद, भाग गई
रोज़ सोता था बेफ़िक्री की नींद
वह रात करवट बदलने में, गई।

सुबह में दुकान में ताला लगाया
चाबी को कुंए में फेंक के आया
सुख के साधन जुटाने लग गया
पहली दफ़ा दारू कवाब लाया।

यारई की महफ़िलें शुरू हो गईं
रातें भी रंगीन सी होने लग गई
ताश पत्ते और दांव शुरू हो गये
दिन में रात, रात में दिन हो गए।

इधर एक साल बस ख़त्म सी हुई
उधर रकम भी सब, ख़त्म हो गई
अभी तक जिनसे , वाक़िफ़ न था
वही बीमारियां अब, अंग लग गई।

कुंए में घुस के, चाबी ढूंढ के लाया
ताला खोल के, दुकान को जमाया
ख़ुशी के दिन थे या, ख़्वाब था यह
सोचा तो करता, समझ में न आया।

एक बार फ़िर से लौटरी खुल जाए
तो सचमुच में ख़ुशी लौट कर आए
कुछ पैसा ग़र, हाथ में आ जाए तो
इन बीमारियो का , इलाज हो जाए।

एक दिन फ़िरसे लौटरी खुल भी गई
दुकान बंद हो गई , चाबी कुंए में गई
अब तो रातों में जगने से वाक़िफ था
इसलिए रात प्लानिंग में गुज़रती गई।

अब दोस्ती का पायदान ऊंचा हो गया
रम की जगह शैम्पेन का जाम हो गया
अब दांव भी कुछ ऊंचे लगने लग गये
दोस्ती में अब ज़न का आग़ाज़ होगया।

मर्ज़ बढ़ते गए ज्यों-ज्यों दवा किया करे
दांव बढ़ते गए ज्यों-ज्यों मना किया करे
वो हुआ हश्र जिसका अंदेशा था शुरू से
जेब खाली हो गई ख़ूब मिन्नतें किया करे।

फ़िर कुंए में उतरा, चाबी को ढूंढने के लिए
वापस न आया गया दुकान चलाने के लिए
मर्ज़ इतने गहरे हो चुके थे इस दौरान , कि
तीसरी लौटरी भी होती बेमानी, उसके लिए।

ओशो का कहना मुतवातिर यही होता है
माना कि दुःख वाकेई में ही दुःख होता है
सुख अलहदा किस्म का दुःख ही होता है
सही काम तो शून्योतर शांन्ति में, होता है।

ज़न= ज़नानी, महिला। मुतवातिर= निरंतर।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।