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Sunday, October 29, 2023

ये मक़ाम नहीं, क़याम है।

 कौन आता है यहाँ पे रहने के लिए 

सभी आते हैं वापस, जाने के लिए 
क्या आफ़ताब कभी रुका है यहाँ?
उसे पता है रात बनी चाँद के लिए।

ग़लतियाँ हम तभी किया करते हें
जब हम यही भूल ज़ाया करते हें 
कि ये मक़ाम नहीं, एक क़याम है 
यहाँ हम इन्तिज़ार किया करते हें।
 
मुझे  पता है, मैं कुछ नहीं जानता 
मैं कुछ हूँ, ये मैं भरम नहीं पालता 
चींटी देखी? कितनी छोटी होती है 
मैं उसको  भी  बनाना नहीं जानता।

न बुलबुल के पंखों में रंग भर सकूँगा 
न चंपा या  जूही को महक दे सकूँगा 
घास का तिनका सबके आगे झुकता 
जानता हूँ, मैं उतना भी  न कर सकूँगा।

उसका करम है, हौसला मिलता रहा 
जीने के लिए एक बहाना मिलता रहा 
कुछ माँग लूँ ? ये मेरी फ़ितरत में नहीं 
जो बख़्शा, सर झुकाए समेटता रहा।

मक़ाम = goal. क़याम = stopover.

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Thursday, October 26, 2023

क्यों न खो सके ख़ुदको ?

 तू मेरे साथ रहता तो आहटें साँस की सुनता 

हर साँस में जो बह रही उस आह की सुनता 

किसके लिए मन में मेरे, ये चाहत समाई है 

तू मेरा बनके दिखलाता तो तू राज़दाँ बनता!


मुझे देखके चुपचाप, क्यों तुझे हो रही हैरत 

जो तू देखता मुझमें, वही तो वक़्त की ग़ैरत  

चाहा था जो तुमने सुपुर्द करना, मेरे हाथ में 

कर देते न होता मयस्सर कभी, दर्द ए सौरत!


मैं उलझा रहा उसमें, तुम उलझाए रहे मुझको 

न मैं पा  सका उसको, न तुम पा सके मुझको 

पाने के लिए कुछ भी , कुछ  खोना  ज़रूरी है 

अच्छा हो देखें हम भी, क्यों न खो सके ख़ुदको ?


ग़ैरत=आत्म सम्मान । दर्द ए सौरत=तीव्र दर्द ।


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि।

Wednesday, October 25, 2023

क्या ये क़ुसूर नहीं ?

मैं कहता हूँ कोई नासाज़ है, फ़िक्र न कर 

मुझे देखके मुँह मोड़ लेता है, ज़िक्र न कर।

जिस दिन मेरा  जनाज़ा  निकल रहा होगा 

वो कन्धा देने को ज़रूर आएगा, शुक्र कर।


यही अफ़सोस है मुझको, वो न आ पाएगा 

जिसने पहचाना था मुझे वही न आ पाएगा 

कोई पहिचान पाए या न पहिचान पाए मुझे 

यक़ीन है मुझे, आईना न मुझे भुला पाएगा।


इस नज़र को सम्भाल के रखना, बात सुनना 

हो सके तो नज़राना अता करना, याद रखना 

ये दो चश्म हें , निगहबान हें , माना यह हमने 

मगर आईना भी हें, भूलना मत, ख़याल रखना।


सारी दुनियाँ ही सिमट गई थी उस दीदावर में 

मेरे मेहरबान , मेरे बादबान , मेरे  हमसफ़र  में 

क्या भुला सकूँगा मैं वो चश्म ए पुरआब  कभी 

मैं कोई दीदबान न था , पर तर था दीदएतर में।


गुज़रा ज़माना है मगर फिर भी ये गुज़रता नहीं 

कैसे सम्भालूँ इसे मैं कि ये अब सम्भलता नहीं।

दूसरों में क़ुसूर ढूँढना तो बड़ा आसान काम है 

क्या मेरा यहाँ होना अपने आप में  क़ुसूर  नहीं ?


दीदावर=जौहरी। बादबान = sails of a ship.

चश्म ए पुरआब= आँसुओं से भरी आँखें।

दीदबान= ऊँचाई से समग्र दृष्टि रखने वाला।

तर था दीद ए तर में = तर निगाहों से तर था।


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि।