हाँ कभी ऐसा भी होता था
बिना कहे ही सब होता था
आज क्या क्या होना है
सब को भी पता होता था !
युगों युगों से होता आया है
हर स्पंद सोखता आया है
बोलकर न इसे बिगाड़ देना
बिना कहे निभाता आया है !
न दिखाता हूँ न बोलता हूँ
न सजाता हूँ, न छिपाता हूँ
वो खुद ही बोलता रहता है
रुख़ पे सब लिखे जाता है !
हाँ एक थी, चौदह फ़रवरी थी
फ़िक्रमंद थी, दानिशमंद थी
मगर एक दिन को भी न अलग
होने वाली अजब सी शिद्दत थी!
क्या रिश्ता था हमारा उनका
ये न अब का था न तब का
सदियों से यूँ ही चला आता है
नाम नहीं होता है कोई इस का !
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि
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