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Thursday, April 21, 2022

जब मज़दूर मज़बूर हुए ।

 उन्हें क्या पता था, ये दिन देखना था 

मज़बूरियों का, क़ाफ़िला  देखना  था ।


ये भूखे  ये  नंगे , चले  जा रहे हें 

हें पाओं में छाले, मगर जा रहे हें 

ये गिरते हें उठते, पसीनों  से तर

गले तो हें प्यासे, मगर जा रहे हें।

इतने  ये मज़बूर , क्यों हो  रहे हें ?

क्यों ख़ुदही अर्थी, लिए जा रहे हें ?

बेकसी में उन्हें , रास्ता नापना था 

लाचारियों का , कारवाँ देखना था ।

उन्हें क्या पता था ये दिन देखना था 

मज़बूरियों का क़ाफ़िला देखना था ।


क्या मेहनत में इनसे कसर रह गई ?

क्या बोझे  को ढोते  कमर सो गई ?

दुपहरी को सर से गुज़ारा नहीं क्या ?

गाली की गोली  निगली  नहीं क्या ?

सूनी सूनी  हें आँखें, होश  गुम गया 

घिसते घिसते संग, नसीब घिस गया ।

क्या धरती को इनके , तले  चूमने थे ?

या बेबसी में चलते ,  इन्हें देखना था ?

उन्हें क्या पता था, ये दिन देखना था 

मज़बूरियों का, क़ाफ़िला देखना था ।


जहाँ पर भी गए ये , बस छले ही गए 

हमदम मिला नहीं , बस डर मिल गए ।

सब कुछ लुट गया , अब  घर  जा रहे 

जहाँ अपना सा लगता , वहीं  जा  रहे ।

आसमॉओं ने भी कोई , की नहीं मदद 

ख़ामोशी में चलता, जा रहा ये जनपद ।

इनसानियत को, बढ़ के पहिचानना था 

जिसने ग़लती की थी , उसे  मानना था ।

उन्हें क्या पता था, ये दिन देखना था 

मज़बूरियों का, क़ाफ़िला देखना था ।


बेकसी = helplessness. संग = पत्थर ।

नसीब = भाग्य । हमदम = दोस्त ।


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि ।

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