काश, हाँ काश, वे सब के सब बच्चे होते
मुमकिन है तब वे इतने फ़रेब न करते होते।
बचाने में और मारने में किसको बहादुरी कहें
शायद इसकी समझ रखने वाले बहादुर होते।
वे हुक्मरान हें, उनका ही कब्ज़ा है सब जगह
मगर चैन क्यों नहीं उन्हें, क्यों है इतनी कलह ?
क्यों लड़ते रहते हें बराबर, हर वक़्त बे सबब
क्यों ख़ुद से ही वे ख़ुद नहीं कर पाते हें सुलह ?
क्या वो चीज़ है जिसकी कमी है उनके पास में
क्या कोई ऐशो आराम है जो नहीं उनके पास में ?
क्या है जो करता रहता आख़िर ऐसे बेचैन उनको
क्यों रहते हें हमेशा ही उनके हाथ सने हुए ख़ून में ?
काश वे हुक्मरान होने के साथ में इन्सान भी होते
किसी के दिल का दर्द समझने के क़ाबिल होते।
ये तबाही के मँज़र, ये सितम, ये कराहटें न होते
काश वे बाहर ही बाहर में इस क़दर उलझे न होते।
काश एक बार वे अपने अन्दर में झाँक लिए होते
अपने बेमिसाल रूहानी ख़ज़ाने को देख लिए होते।
इन सरहदों की ख़ातिर इस तरह जँग न किए होते
काश वे सिर्फ़ आसमाँ में उड़ने वाले परिन्दे जो होते।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि ।
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