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Monday, September 16, 2024

है कोई अपना?

कोई आज तक , छू तक न पाया , अन्दर में मेरे 
सारी ख़ुशियाँ हटा न पाईं उदासियों के साए मेरे ।

इसमें किस को कुसूरवार ठहराऊँ आख़िर में मैं 
उसको या नसीब को? दौनों का तलबगार हूँ मैं।

तंग आगया हूँ मिलते मिलते लोगों के किरदार से
अरसा होगया है मुझको मिले हुए किसी अपने से।

कभी ऐसे ही चले आना, आकर के मिल भी जाना
बहाने बनाकर के तो हरकोई करता है आना जाना।

पता है कितने दिन बीत गए हें मुस्कुराहट देखे बगैर
बस मसनूई मुस्कुराहट दिखाई देती है, यही है ख़ैर।

एक दौर था जब चाँद सुन्दर हुआ करता था, है न?
एक अरसा हुआ अब दाग़दार  लगने लगा है, है न?

तलबगार=तलाश करने वाला।मसनूई= कृत्रिम।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि