तुम जो कहो नग़मा-ए-उल्फ़त सुनाऊँ?
कुछ माज़ी सर…गोशी दुहराऊँ?
तुम्हारे सरगम की ख़ातिर दरकार
दिल में छिपा मेरा बरबत बजाऊँ?
दिल की परतों में दबा वो भेद सुनाऊँ ?
क़ैफ़ियत गुमनाम आज उजागर कराऊँ?
जुबाँ पे ला न पाया जिसे मैं अभी तक
वो अन्दाज़ ए बयाँ भी तुमको सुनाऊँ?
एक तुम्हारी ख़ातिर ही जिन्दा हूँ, समझे?
तुम्हारे सिवा कुछ न चाहिए , समझे?
और बता दूँ एक राज़ की बात तुमको
हररोज़ मरता हूँ, सो थक गया हूँ, समझे?
अन्दाज़ ए इबादत = बन्दगी करने का ढंग।
नग़मा ए उल्फ़त = प्यार का गीत।माज़ी = पुरानी।
सर गोशी = कानाफूसी।बरबत = एक वाद्य यन्त्र।
क़ैफ़ियत = पहचान।अन्दाज़ ए बयाँ = बोलने का ढंग।
ओम शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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