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Saturday, August 29, 2020

ठीक है

तुम आए मेरी ज़िन्दगी में और चुप रहते हो, बिला वजह
जब कि मैं मुंतजि़र हूँ तुम्हारी आवाज़ का, हर इक सुबह।

 जि़ंन्दगी का शुक्रिया, ज़िंदा हूँ तुम्हें याद करने के लिए
मुश्किल होती, याद न होती जो तुम्हें याद करने के लिए।

तुम्हारी यादों के दिये , मेरी आँखों में जला करते हैं
तुम्हें शायद ख़बर न हो, ये आँसुओं से जला करते हैं।

         तुम अपनी ज़िद पै क़ायम रहो
          कि जैसे मुझसे मिले न थे तुम
          भुला दो मन से यादें भी मेरी
           कि जैसे सपने भुला देते हें हम।

जिस्म को तो मैं खो दूँगा इक दिन, कोई भी हो वजह
महक मेरी मिल जायेगी मगर, उड़ती हुई जगह जगह।

मुंतज़िर= इन्तिज़ार में।

ओम् शान्ति:
अजित संबोधि

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