तुम्हारा फ़ैसला जोभी, मेरे माकूल होता है
हर बात में किनाया भी , मख़फ़ी , होता है
तहक़ीक़ात करने में, मन मशगूल होता है।
मेंने तो तिजारत नहीं की, इबादत ही की है
पूछलो इन आँखों से जिन्होंने सदारत की है
शिकस्त खाई है , हिम्मतपस्त नहीं हुआ हूँ
मेंने हर दरख़्वास्त के साथ, ज़ियारत की है।
मंज़िल मिले ही , ये न मक़सद था मेरा
तुमको भूल जाऊँ, ये न मक़सद है मेरा
दोराहे पर आकर के , खड़ा ही रहूँ मैं
ये भी तो अभी तक, न मक़सद है मेरा ।
मेरा काम है मरना, मैं मरके देखा करता हूँ
हर मरना नई मंज़िल, मंज़र देखा करता हूँ
कभी नीला कभी पीला तुझे देखा करता हूँ
रंगों के पार रंग तेरे , तमाशा देखा करता हूँ ।
किनाया=इशारा। मख़फ़ी=छुपा हुआ।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
No comments:
Post a Comment