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Wednesday, September 23, 2020

जंग गाह

कभी सरहद कभी मज़हब,जंग रुकती क्यों नहीं
कब्र गाह बनी तवारीख़ , होश , आता क्यों नहीं
कभी सीज़र कभी सिकंदर , कभी ज़ारो ज़रीना
फ़ातेह तो हुए बेइंतिहा , नज़र आते क्यों नहीं।

जंग लड़ता रहा, फ़िर मन भरता क्यों नहीं
क्या हासिल हुआ, हिसाब रखता क्यों नहीं
जिस को मारा है, तूने , तेरे नाम लिख गया
इंसानियत की शिकस्त पे तू रोता क्यों नहीं।

जंग जीतकर भी बात , बनती क्यों नहीं
शोहरत तो मिल गई, मुतमुइन क्यों नहीं
क्या ज़िन्दगी भर यों ही छटपटाया करेगा
रणछोड़ से तू फ़लसफ़ा सीखता क्यों नहीं।

ईसा को तो मारा, ज़ुल्म को मारा क्यों नहीं
बापू को मारा , नफ़रत को मारा क्यों नहीं
जब भी मारा , प्यार करने वाले को मारा
कैसे मरता प्यार में मंसूर , समझा क्यों नहीं।

तू ख़ाक से ढक गया है , आईना देखता क्यों नहीं
तुझे ख़ुद की ख़बर नहीं,किसी से पूछता क्यों नहीं
तुझे देख कर , नम हो जाती हैं , आँखें मेरी
तुझे अपनी बदहाली पे रहम आता क्यों नहीं।

फ़ातेह=victors. मुतमुइन=संतुष्ट।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

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