उसे देख के मुझको, इक ख्य़ाल उभर आता है।
क्या वो आसमान से मिलने की, तमन्ना करता है
या अपने अकेले अंदाज़ को, मुकम्मल करता है?
कभी तो वो ख़ुश होकर, ज़ोरों से फ़ड़फ़ड़ाता है
कभी मायूसियों के बीच, शिकस्ता नज़र आता है।
लोग कहते हैं , वह हवाओं का रुख़ समझता है
हमें अपना रुख़ समझने का, तरीक़ा बताता है।
मेरा ख़याल है कि वह इबादत, किया करता है
नाज़रीन को परस्तिश की दावत दिया करता है।
मुकम्मल=पक्का। शिकस्ता=हारा हुआ।
नाज़रीन=दर्शक। परस्तिश=पूजा।
आपका क्या ख़याल है?
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि
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