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Monday, October 5, 2020

शिकायत

ख़्वाबों की सीढ़ी चढ़ कर,हम शीशमहल तक पहुंच गए
वक्त ने दामन छुड़ा लिया तो काचके माफ़िक बिखर गए।

हमने अपने सपने चुन चुन, पलकों में थे ख़ूब संजोए
क़िस्मत ने नज़रें फेरीं तो, मोती बन कर बिखर गए।

अपने दर्द के साथ ही हमने, अपनाया था दर्द भी तेरा
तुम क्या नहीं अकेले मुझ सम, फ़िर कैसे यूं दूर हो गए।

जिस दिन तुमने क़समें तोड़ीं, उस दिन हम भी टूट गए
ख़ंजर क्यों ऐसा मारा , कि सारे मंज़र बिखर गए।

सांसों में और आहों में क्या फ़र्क़ है अब हम भूल गए
देख लो आकर के कैसे , शाख से पत्ते बिखर गए।

ऐसी भी क्या मज़बूरी है ज़ुबां पे बंदिश लगा के बैठे
इख़लास के धागे अब आकर कैसे अचानक टूट गए।

अपनी फ़िक्र के साथ ही मुझको तेरी फ़िक्र सताती है
क्या होगा ग़र हया के चलते , तुम भी ऐसे टूट गए।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

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