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Saturday, October 17, 2020

बरज़बाँ लम्हा

भूले से सुलूक जो तुम से मिला है
उसी  के  सहारे  मैं  जीता  रहा  हूँ 
सफ़र में अकेला ही  चलता रहा हूँ 
तुम्हें याद मुसल्सल मैं करता रहा हूँ।

कहीं कोई आवाज़  देता नहीं है
कहीं से कोई भी बुलाता नहीं है
ग़मे दिल से है  ये अजब दोस्ती
मुझे छोड़ कर वो जाता  नहीं है
तमन्नाएं  ख़ाक   होती  रही  हैं
उसी ख़ाक को मैं उड़ाता रहा हूँ।

क्या मुमकिन नहीं फ़िर से आवाज़ दे दो
दर ए वाक़िफ पे  फ़िर  से दस्तक  दे दो
रुख़ पे तेरे मैं मुसर्रत की ला दूँ हँसी
इतनी इजाज़त तो मुझको भी दे दो
दामन  पे  तेरे  लगाया  न  दाग़
हर लम्हा हिफ़ाज़त से रखता रहा हूँ।

क्या मुमकिन  नहीं भूलना  तुम भुला दो
क्या वाजिब नहीं फ़ासला तुम मिटा दो
मेरी बदनसीबी को  मक़सद बनाना
तुम्हें हक है लेकिन ख़ता तो बता दो
तेरी आँख से कोई  आँसू  न टपके
आसमाँ  से दुआ  माँगता  मैं रहा हूँ।

मैं तनहा रहूँ, रास  आता क्या तुमको?
दिल को दुखाना क्या भाता है तुमको?
मुझको यकीं  है  कि  ऐसा  नहीं है
ख़ुदारा बतादो क्या भाता है तुमको?
तुमको समझने में नाकाम हूँ मैं
भरपूर कोशिश मैं करता रहा हूँ।

मुसल्सल = लगातार। दर ए वाक़िफ़ = परिचित दर।
दस्तक = knock. रुख़ = चेहरा।मुसर्रत = ख़ुशी।
तनहा = अकेला।ख़ुदारा = ख़ुदा के लिये।
बरज़बाँ = हर वक्त ज़ुबान पर रहने वाला।

ओम् शान्ति: 
अजित सम्बोधि।

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