हरी भरी, सुगन्धित, आमंत्रित करती, तुलसी
निस्प्रह, नैसर्गिक, निरुक्त, पुण्यफल प्रदायिनी
निरख कर पाता हूँ, मेरी रूह है हुलसी हुलसी।
कभी जब देखता हूँ मन मेरा हो रहा भ्रांत है
रूह से रह रह कर अलग, हो गया क्लान्त है़
मैं उठ कर के बैठ जाता हूँ तुलसी के पास में
तुलसी को निरख निरख चित्त होता शान्त है।
जो अंग करता सत्संग, तुलसी करती निर्द्वंद है
जहाँ पे भी लाज़िमी होता, हटा देती निर्बन्ध है
ये तो रोग निवारणी, कल्मष हारिणी, शीली है
पशु, पक्षी, मानव, सबसे रखती म्रदु संबन्ध है।
कदम्ब को कृष्ण से हुआ अदभुत अनुराग था
बुद्ध के प्यार में पीपल भी बन गया फ़राग़ था
वर्ड्सवर्थ को तो समस्त ग्रीनवुड ही प्यारा था
तुलसी का अनुषंग मुझे शैशव में ही प्राप्त था।
फ़राग़=मुक्ति।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
No comments:
Post a Comment