साथ की ज़िद न थी मेरी, कारवाँ बनता गया हर दिन
रहनुमाई थी तेरी, तेरे साये में मैं, चलता गया हर दिन
दुआ मिलती गई सबकी, मुकद्दर बनता गया हर दिन।
शम्स खिलता रहा हर दिन, ऐजाज़ बनता गया हर दिन
हम थे बेख़बर मगर जीना, ख़ुशरंग बनता गया हर दिन
वक्त चलता रहा, रास्ता ख़ुद ब ख़ुद बनता गया हर दिन
हदफ़ को न ढूँढा , मगर ख़ुद ब ख़ुद आता गया हर दिन।
हमने माँगा नहीं, दूरियाँ थीं,बनगईं नज़दीकियाँ हर दिन
ख़ुद से जब हुए रूबरू हम,हमसाया बनते गए हर दिन
सुबह जो उठता हूँ बुलबुल का बुलावा मिलता, हर दिन
कुछ तो ऐसा है ख़ुद को सम्हालता जाता हूँ मैं, हर दिन।
मुकद्दस हों इरादे तो गिर कर सम्हलते रहते हैं, हर दिन
तन्हा नहीं मगर तन्हाइयों में पैवस्त रहे आते हैं हर दिन
जहाँ से आगे और भी हैं जहाँ,नहीं होती है कभी इंतिहा
गुलशन महकते रहते हैं आपकी ख़ातिर ही तो, हर दिन।
सुनिए यह जो हमारा इत्तिफ़ाक़ चला करता है, हर दिन
कोई तो है ही जो करम करता रहता है हम पर, हर दिन
जो आपको यों वो रिफ़ाह मुसल्सल देता रहा , हर दिन
वो ही तो मुझको भी बिना माँगे शिफ़ा देता रहा हर दिन।
वक्त की तौहीन न कर बैठना कभी भी, किसी भी दिन
मिलने से पेशतर बिछड़ जाते हैं, ऐसे होते हैं कई दिन
ज़रा यह भी सुनलें अगर जो सुनना वाजिब समझते हैं
अपना साया भी पहिचानना मुश्किल होता है एक दिन।
दुनिया का रवाज है, कूच करना होता है सबको एक दिन
सभी हार जाते हैं, ज़िंदगी की बाज़ी तो मौत से एक दिन
हारी हुई बाज़ी को पलट दिया करता है कभी कोई बशर
ख़ुशबू बिखरी हुई पा लेता है जब वह कहीं पर एक दिन।
शम्स=सूर्य।ऐजाज़=चमत्कार। हदफ़=target.
हमसाया=क़रीबी। मुकद्दस=पवित्र। पैवस्त=संलग्न।
रिफ़ाह=हितकारिता। मुसल्सल=लगातार। शिफ़ा=दवा।
बशर=इन्सान।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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