सब कुछ मिलता सिवा उसके जिसे मैं ढूँढता हूँ ।
हर रोज़ मिलता है एक खोया खोया सा आसमाँ
नहीं मिलता अब वो आसमान जिसे मैं ढूँढता हूँ ।
चेहरों का दरिया, गुज़रता रहता है मेरे सामने से
नहीं आता है नज़र वह चेहरा, जिसे मैं ढूँढता हूँ ।
हर दरीचे में जाकर, सूँघता हूँ, हवा के झोंकों को
नहीं मिलता महक का झोंका, जिसे मैं ढूँढता हूँ ।
लगता है खड़ा हूँ मैं, ज़ुबानों के एक समन्दर में
वह हम-ज़ुबाँ नहीं है मिलता, जिसे मैं ढूँढता हूँ ।
एक थी निगाह जिसमें इन्तिज़ार हुआ करता था
अब वो दिखती नहीं है, हज़ारहा उसे मैं ढूँढता हूँ ।
नाख़ुदा= नाविक।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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