परिन्दो यहाँ न आना, सिर्फ़ वीरानियाँ ही रह गईं।
तारों का कहकशाँ था, थी चाँदनी छिटकी हुई
घटाऐं पन्ने पलटती गईं, मजबूरियाँ ही रह गईं।
बड़ी शिद्दत से जी ज़िंदगी, बनी थी इक किताब
ज़लज़ला बहाकर ले गया उसे , यादें ही रह गईं।
क्या सलीका था रहगुज़र निकालने का, उलझन में
उस सलीके की बस अब आँखों में, तस्वीर रह गई।
सबकुछ था मेरी कश्ती में, मालिक का बख़्शा हुआ
मेरा नाख़ुदा चला गया, मेरी कश्ती उजड़ के रह गई।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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