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Tuesday, May 11, 2021

रस्में निभा रहा हूँ

मौसम ले रहा है साँस, मैं भी ले रहा हूँ
बाकी बची हें कुछ, इसलिए ले रहा हूँ।

ज़ुल्फ़ें सम्हाले कोई, मैं दर्द सम्हाले हूँ
जीने के लिए दर्द का सहारा ले रहा हूँ।

सन्नाटा बोलता है गोकि ज़ुबाँ अलग है
उसी से कर के बातें, रातें बिता रहा हूँ।

चाँद ने जब भी उड़ेली, चाँदनी मेरे वास्ते
साझा दर्दे निहाँ उसीसे, मैं करता रहा हूँ।

कहाँ से लाऊँ उसे, नेमुल बदल है नहीं
हारे हुए इन्सान की, रस्में निभा रहा हूँ।

दर्दे निहाँ=छुपा हुआ दर्द
नेमुल बदल= सानी

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।


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