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Wednesday, May 12, 2021

नींद चुरा रहा था

कभी यहाँ पर , समाँ  रहा था
किसी का मैं भी ख़ुदा रहा था।

चराग़ जब तक जलता रहा था
वक्त भी आकर, थमा रहा था।

वो मुझको येभी दिखा रहा था
कभी यहाँ , घौंसला रहा था।

काली घटाऐं, जब जब भी छाईं
पेड़ों पे सावन का झूला रहा था।

मैं ख़्वाब अपने , सुना रहा था
वो पलकों से नींद चुरा रहा था।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

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