किसी का मैं भी ख़ुदा रहा था।
चराग़ जब तक जलता रहा था
वक्त भी आकर, थमा रहा था।
वो मुझको येभी दिखा रहा था
कभी यहाँ , घौंसला रहा था।
काली घटाऐं, जब जब भी छाईं
पेड़ों पे सावन का झूला रहा था।
मैं ख़्वाब अपने , सुना रहा था
वो पलकों से नींद चुरा रहा था।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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