दास्तान ख़त्म भी हुई न थी, बीच में ही सो गया।
हम तो रहते थे बेख़बर, ख़बर रखने वाला खो गया
क्या रही मज़बूरी ऐसी, ख़ामोश कैसे हो गया?
यक़ीन था इतना उस पे, हम आँखें बंद कर चलते रहे
जब खोली आँखें तो देखा, रहबर रवाना हो गया।
समझा था उम्र भर के लिए, मिल गया हमदम हमें
वो उम्र कम करता रहा और, बिस्मिल हो गया।
थे तो हम हमसफ़र, रहगुज़र भी अब तक एक था
मुहताज हो मैं, देखा किया और, वो रफ़ू हो गया।
ख़ूब बहलाया है दिल को, नाकामियाँ ही मिल सकीं
क्या करूँ इस ज़िन्दगी का, दिल ही तन्हा हो गया?
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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