कुदरत का दस्तूर है , गया लौट कर नहीं आता
दिल को समझा दूं, मुझे वो सलीका नहीं आता।
पहुंच जाता वहां भी जहां से बुलावा नहीं आता।
वह क्या समझेगा किसी के दिल का, इज़्तिराब
जिसको आंख का एक आंसू बहाना नहीं आता।
आंसू बड़ी नियामत हैं , इस जहान में, साहिबान
जो आंसू टपकता है, अजनबी बन के नहीं आता।
समन्दर को लिए फिरते हैं दामन में ये जो बादल
बरसते हैं वहां भी ये, जहां कोई रहने नहीं आता।
दिल में न भरा हो, जब तक, रोशनी का समन्दर
ज़िन्दगानी में मुहब्बत का वो सेलाब नहीं आता।
इज़्तिराब= बेचेनी का सेलाब
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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