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Saturday, May 7, 2022

चाचा की चौपाल !

ये यहाँ की चाचा की चौपाल  है 

यहाँ मिलते हर रँग के कव्वाल हें 

मिलता सब को,  सब का हाल है 

यहाँ रहता क़िस्सों  का  धमाल है । 

                        I

मिट्टी के चूल्हे में हो लकड़ी की आग 

धीमे से खदकता हो सरसों का साग 

सिल बट्टे पे पिसी हरी मिर्ची के साथ 

कुरकुरी मक्की रोटी, लगती है स्वाद ।


ये तो वहीं पड़े रहेंगे, जहाँ पे पुरखे थे 

ज़माना आगे गया, वहाँ से जहाँ वे थे 

अब तो माइक्रो वेव पकाता है झट से 

हड्डी गला दे, इतने ग़र्म कभी अँगारे थे ?

                      II    

मकान की छत पे , रहता है मेरा  मचान 

रात में सोता मैं, तान  के पूरा  आसमान 

मत समझ लेना, मैं सोता हूँ अकेले वहाँ 

तारे भी आ जाते हें, ले के अपना सामान !


सूरज उगने से पहिले, बुलबुल बोलती है 

बड़ी समझदारी से, इस्तक़बाल करती है 

आख़िर सूरज से ही तो , दुनियाँ चलती है 

मुझको जगाने का भी वही काम करती है ।

 

वो होशियार लोग हें, फ्रिज में से खाते हें 

आधी रात को भी उठ कर, पीज़ा खाते हें 

सुबह उठते ही पहिले, सब बरगर खाते हें 

बड़े ठाठ हें उनके दिन में मैकरोनी खाते हें । 

                    

सब के सब गद्दे जैसे गुदगुदे हो रहे हें

सूरज सर पे चढ़ गया, अभी सो रहे हें 

दुगने मोटे गद्दों पे, ए.सी. में सो रहे  हें 

पता नहीं पड़ोसी क्यों परेशाँ हो रहे हें ? 

       ॐ            ॐ              ॐ             

बाई कह रही थी , किसी को बताना नहीं 

हर महीने बिल आता है, बात बताना नहीं 

डाक्टर का,  मेरी साल की पगार जितना 

कमाते किसके लिए हें? बात बताना नहीं । 

                       III

“मारो मारो”,  झण्डे पर यही निशान था 

ताक़त दिखाने का , एक यही पैमाना था 

बचाने का ज़िक्र तो कहीं पे, कभी  न था 

बचाना कभी भी, कोई मुद्दा रहा ही न था । 


हर ओर एक नारा है, दुश्मन को मारना है 

अपनी फ़ौज के  लिए असलहा बनाना है 

बड़ी मुश्क़िल, हर तरफ़ दुश्मन ही दुश्मन 

दोस्त तो है ही नहीं , फ़िर किसे बचाना है ?


गाँव की ज़मीन को तो फ़ैक्टरी निगल गई 

ताज़ी हवा को फ़ैक्टरी की गैस निगल गई 

मोर की आवाज़ फ़ैक्टरी की सीटी खा गई 

इतना विकास ! मेरी तो हवा ही निकल गई !


इस्तक़बाल = स्वागत । असलहा = armament.


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि ।

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