मैं कहता हूँ कोई नासाज़ है, फ़िक्र न कर
मुझे देखके मुँह मोड़ लेता है, ज़िक्र न कर।
जिस दिन मेरा जनाज़ा निकल रहा होगा
वो कन्धा देने को ज़रूर आएगा, शुक्र कर।
यही अफ़सोस है मुझको, वो न आ पाएगा
जिसने पहचाना था मुझे वही न आ पाएगा
कोई पहिचान पाए या न पहिचान पाए मुझे
यक़ीन है मुझे, आईना न मुझे भुला पाएगा।
इस नज़र को सम्भाल के रखना, बात सुनना
हो सके तो नज़राना अता करना, याद रखना
ये दो चश्म हें , निगहबान हें , माना यह हमने
मगर आईना भी हें, भूलना मत, ख़याल रखना।
सारी दुनियाँ ही सिमट गई थी उस दीदावर में
मेरे मेहरबान , मेरे बादबान , मेरे हमसफ़र में
क्या भुला सकूँगा मैं वो चश्म ए पुरआब कभी
मैं कोई दीदबान न था , पर तर था दीदएतर में।
गुज़रा ज़माना है मगर फिर भी ये गुज़रता नहीं
कैसे सम्भालूँ इसे मैं कि ये अब सम्भलता नहीं।
दूसरों में क़ुसूर ढूँढना तो बड़ा आसान काम है
क्या मेरा यहाँ होना अपने आप में क़ुसूर नहीं ?
दीदावर=जौहरी। बादबान = sails of a ship.
चश्म ए पुरआब= आँसुओं से भरी आँखें।
दीदबान= ऊँचाई से समग्र दृष्टि रखने वाला।
तर था दीद ए तर में = तर निगाहों से तर था।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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