किसके लिये ये समाँ सज रहा है
शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है?
क्या आसमाँ को यक़ीं हो रहा है
फ़रिश्ता ए नूर इधर आ रहा है?
खड़ी थी साहिल पे अरसे से कश्ती
क्या उसे अब माँझी नज़र आ रहा है?
क्या बहारों ने पैग़ाम अब दे दिया है
फ़ुरकत का वक़्त बिदा हो रहा है?
कोई भी रिश्ता हो, अभी का नहीं है
हर रिश्ता अज़ल से चला आ रहा है
रूहों से ही सदा, जिस्म सजते रहे हें
ये दस्तूर पुराना है, चला आ रहा है ।
न कोई था जुदा और न होगा जुदा
जिस्मानी चोग़ा ही बदलता रहा है।
मुद्दतों से सिलसिला चलता रहा है
वही नूर बनके यहाँ पे बह रहा है ।
शब-ओ-रोज़ = रात दिन।
फुरकत=जुदाई। अज़ल= प्रारम्भ।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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