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Tuesday, May 14, 2024

शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है।

 किसके लिये ये समाँ सज रहा है

शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है?

क्या आसमाँ को   यक़ीं हो रहा है 

फ़रिश्ता ए नूर  इधर  आ  रहा  है?


खड़ी थी साहिल पे अरसे से कश्ती 

क्या उसे अब माँझी नज़र आ रहा है?

क्या बहारों ने पैग़ाम अब  दे दिया है 

फ़ुरकत  का वक़्त  बिदा हो रहा  है?


कोई भी रिश्ता हो, अभी का नहीं है 

हर रिश्ता अज़ल से चला आ रहा है 

रूहों से ही सदा, जिस्म सजते रहे हें

ये दस्तूर पुराना है, चला आ रहा है ।


न कोई था जुदा और न होगा जुदा 

जिस्मानी चोग़ा ही बदलता रहा है।

मुद्दतों से सिलसिला चलता रहा है 

वही नूर बनके  यहाँ पे बह  रहा  है ।


शब-ओ-रोज़ = रात दिन।

फुरकत=जुदाई। अज़ल= प्रारम्भ।


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि।

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