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Monday, September 16, 2024

है कोई अपना?

कोई आज तक , छू तक न पाया , अन्दर में मेरे 
सारी ख़ुशियाँ हटा न पाईं उदासियों के साए मेरे ।

इसमें किस को कुसूरवार ठहराऊँ आख़िर में मैं 
उसको या नसीब को? दौनों का तलबगार हूँ मैं।

तंग आगया हूँ मिलते मिलते लोगों के किरदार से
अरसा होगया है मुझको मिले हुए किसी अपने से।

कभी ऐसे ही चले आना, आकर के मिल भी जाना
बहाने बनाकर के तो हरकोई करता है आना जाना।

पता है कितने दिन बीत गए हें मुस्कुराहट देखे बगैर
बस मसनूई मुस्कुराहट दिखाई देती है, यही है ख़ैर।

एक दौर था जब चाँद सुन्दर हुआ करता था, है न?
एक अरसा हुआ अब दाग़दार  लगने लगा है, है न?

तलबगार=तलाश करने वाला।मसनूई= कृत्रिम।

ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि                                                                                                                                                      
                                                                                                                                                                               

Monday, August 26, 2024

कान्हा

ये दुनिया तुम्हारी, और मैं भी तुम्हारा, कान्हा 

तुम आते रहे हो अब आ जाओ फ़िर से कान्हा 

कितने जन्मों से तुमको पुकारता आ रहा हूँ मैं 

अबके न फ़िर से मायूस करो, मुझको कान्हा।


तुमने चरण धोये अपने बाल मित्र के, ऐ कान्हा 

अबकी बार अपने चरण हमसे धुला लो कान्हा 

 तुम तो लीला दिखाने में माहिर हो बेहद कान्हा 

अबके मेरे आँगन में भी दिखा दो खेला  कान्हा।


तुम्हारे सिवाये, अब कहाँ पे ढूँढूँ सहारा, कान्हा 

मेरे मन का अँधेरा कैसे मिटेगा, बताओ कान्हा 

रिझावों भुलावों का सहारा नहीं चाहिए, कान्हा 

तेरी रहमत के सिवा मुझे कुछ न चाहिये कान्हा।


मेरी आँखों के ये आँसू तो कभी देख ले, कान्हा 

ये जमुना की धारा है, तट पे फ़िर आजा कान्हा 

ये दिल की वादियाँ कब से सूनी पड़ी हें कान्हा 

कभी बाँसुरी फ़िर से इनमें बजा तो दे, कान्हा।


कन्चन - कामिनी से न बहलाना मुझको कान्हा 

इन खिलोनों से न मैं बहल पाऊँगा अब, कान्हा 

तू अब बना ले मुझको अपना पसन्दीदा कान्हा 

तमन्ना है कि उँगली पकड़ के चलूँ तेरी कान्हा।


तुम्हारी मुस्कुराहट का कोई सानी है क्या कान्हा 

तुम शरारत करते थे और मुस्कुरा देते थे कान्हा 

तुम मक्खन चुराते थे और मटकी फोड़ते थे कान्हा 

पर तुम्हारी मुस्कुराहट सबको रिझाती थी कान्हा।


जय कान्हा कुन्जबिहारी की  

अजित सम्बोधि 

Saturday, July 13, 2024

क़दमबोसी की चाहत कबसे कर रहा हूँ

मालिक तेरा फ़ज़ल है, जिससे मैं जी रहा हूँ 

बख़्शा है तूने जो कुछ, उसीसे मैं  जी रहा हूँ 
मुझमें कहाँ थी हिकमत, तुझ को पा सकूँ मैं
तेरा ही करम तो है ये , मैं  उसी से जी रहा हूँ।

जब से  सम्हाला  होश , मैं चलता  जा रहा हूँ 
मुश्किलों के दरीचों के पार , बढ़ता जा रहा हूँ 
ज़िन्दगानी  रहगुज़र, दम ब दम बनती  रही है  
तेरे क़दमों की आहट मैं , हरदम सुनता रहा हूँ।

मुझको तेरी ही चाहत , अरसे से  कह रहा हूँ 
जो कुछ भी है वो तेरा , तुझसे  ही पा  रहा हूँ 
नज़रे इनायत का तेरी , हूँ  मोहताज  हर पल 
क़दमबोसी की चाहत मैं , कबसे कर  रहा हूँ।

ये ना समझ लेना कि , मैं  बहाना बना रहा हूँ 
तुझको लुभाने को कोई, जाजम बिछा रहा हूँ 
मेरी ग़ैरत को न इतना, कम करके तू आँकना
मैं हार करके सब कुछ , तेरी दुआ कर रहा हूँ।

क़दमबोसी=क़दम चूमना। हिकमत=योग्यता।
करम=कृपा।रहगुज़र=राह। दम ब दम=पल पल।
ग़ैरत=ख़ुद्दारी। क़दमबोस=क़दम चूमने वाला।

क़दमबोस
अजित सम्बोधि।

Saturday, June 1, 2024

नज़रों से पर नज़र न आए ।

बातें करने फिर फिर आए 
नज़रों से पर नज़र न आए 
शाम हुईँ सूनी हें जबसे 
ढलता सूरज रुक ना पाए।

कभी  दूर  से  पास  बुलाए
कभी यूँ ही फ़िर रूँठ के जाए, समझ न आए 
उलझी उलझी  इन  राहों में
दिल घबराए, पार न पाए, निकल न पाए।
बातें करने फिर फिर आए 
नज़रों से पर नज़र न आए ।

मुझे कोई क्यों, यूँ भरमाए 
धूमिल सी परछाईं बनके, अपने ही सपने बन आए
मन   के   अंधेरे , शाम  सबेरे
भूली यादें लेकर आए, भोला मन फिर फिर चकराए।
बातें करने फिर फिर आए 
नज़रों से पर नज़र न आए ।

ख़्वाब बने हैं शाम के साये
दर्द   भरे   बादल   घहराये, कैसे छाए, मन को डराये
सब कुछ  तो  है रीता  रीता 
मन बहलाने आँसू आए, लौट लौट के फिर फिर आए।
बातें करने फिर फिर आए
नज़रों से पर नज़र न आए ।

दिल के भेद न हर कोई जाने
गहरे उतरे सो ही जाने, सूने को सूना पहिचाने
खोई खोई सी ये आँखें, भारी भारी सी ये साँसें 
हर कोई इनको पढ़ नहीं पाए, समझाने से समझ न पाए।
बातें करने फिर फिर आए 
नज़रों से पर नज़र न आए।

ओम शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Tuesday, May 14, 2024

शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है।

 किसके लिये ये समाँ सज रहा है

शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है?

क्या आसमाँ को   यक़ीं हो रहा है 

फ़रिश्ता ए नूर  इधर  आ  रहा  है?


खड़ी थी साहिल पे अरसे से कश्ती 

क्या उसे अब माँझी नज़र आ रहा है?

क्या बहारों ने पैग़ाम अब  दे दिया है 

फ़ुरकत  का वक़्त  बिदा हो रहा  है?


कोई भी रिश्ता हो, अभी का नहीं है 

हर रिश्ता अज़ल से चला आ रहा है 

रूहों से ही सदा, जिस्म सजते रहे हें

ये दस्तूर पुराना है, चला आ रहा है ।


न कोई था जुदा और न होगा जुदा 

जिस्मानी चोग़ा ही बदलता रहा है।

मुद्दतों से सिलसिला चलता रहा है 

वही नूर बनके  यहाँ पे बह  रहा  है ।


शब-ओ-रोज़ = रात दिन।

फुरकत=जुदाई। अज़ल= प्रारम्भ।


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि।

Tuesday, April 23, 2024

जीत ही गई ये दुनिया

न चाहते हुए भी मिल गई ये दुनिया 
बड़ी  पुरअसर है  साहब ये  दुनिया।

मैं कहता ही रहा, मुझ पर रहम करो 
ख़ैरात में भी नहीं  दरकार ये  दुनिया।

हाँ  मैं  बिल्कुल  होश  में हूँ,  साहब
नहीं चाहिए मुझे आपकी ये दुनिया।

ये दुनिया जो बदलती है रंग हर दम
हर रंग पे रिझाने में माहिर ये दुनिया।

दामन  में  दाग़  लगा  लगा  करके 
जीतने का हुनर सिखाती  ये दुनिया।

हरदम ऐजाज़ होते रहते हैं कायनात में 
मग़र हशर: ए मगज़ में उलझी ये दुनिया।

ये गोली तमंचे  चीख़ों  की दुनिया 
नहीं चाहिए मुझे ये  ख़ूँरेज़ दुनिया।

सिक्कों के आगे सिमटती ये दुनिया 
नहीं चाहिए ग़ैरत लुटाती ये दुनिया।

शफ़्फ़ाफ़ निगाहें नापसंद हैं इसको 
रूहानियत  दफ़्न करती ये  दुनिया।

वो सितम ढाते हैं और मुस्कुराते हैं 
है न  सितम-ज़रीफों  की ये दुनिया?

हूँ अकेला, खड़ा देखता हूँ ये दुनिया 
थक चला हूँ , जीत ही गई ये दुनिया?

पुरअसर = प्रभाव शाली ।ऐजाज़=चमत्कार। 
कायनात= स्रष्टि।हशर: ए मगज़= दिमाग़ी कीड़ा।
ख़ूँरेज़ = ख़ून बहाने वाली।शफ़्फ़ाफ़= पारदर्शी।
सितम-ज़रीफ़=हँस हँस के क़त्ल करने वाला।

ओउम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।

Thursday, April 18, 2024

आज बस मुस्कुरा देना!

  बस कोई मुस्कुरा भर दे, इतना ही चाहता हूँ 

यह करम मुझ पर कर दे, इतना ही चाहता हूँ।

 वो मुस्कान ए लब हो या इब्तिसामे चश्म हो 

यह तोहफ़ा  है प्यार का, इसे पाना चाहता हूँ।


मुझे नहीं चाहिए बड़े बड़े वायदे वो प्यार के 

ना ही मुझे  चाहिए वो अल्फ़ाज़  इकरार के।

बोल दिया तो बात का वज़न बिखर जाता है 

बिना बोले कहदेना, ये जादू पास मुस्कान के !


ये बड़ी नायाब दौलत है, यही जो मुस्कुराहट है 

नाहीं वहाँ कोई आहट है और नाहीं घबराहट है।

न बातों को चमकाने की  कोई खुसफुसाहट है 

बस चेहरे पे लिख जाती दिलकी जगमगाहट है!


अगर जो रश्क है मुझसे, बस मुस्कुरा भर देना 

मैं पास में हूँ या दूर में हूँ, बस मुस्कुरा भर देना।

लफ़्ज़ तो बेमानी हो जाते हें उस सुकूत के आगे 

जिसका काम है  दम ब दम, सुकून से  भर देना!


मुस्कान ए लब= होठों पे मुस्कान। 

इब्तिसामे चश्म = आँखों की हँसी।

रश्क= किसी के जैसा होने की चाहत।

सुकूत= सन्नाटा। सुकून = चैन।


ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि।