Thursday, October 31, 2024
संग संग थे दीप जलाने।
दिवाली आ गई।
Wednesday, October 30, 2024
Festival of Lights!
We call Festival of Lights, Diwali!
It’s the biggest festival beside Holi.
Holi uses colors and Diwali floods
Of lights, to make everybody jolly!
Diwali drives away all darknesses
That everyone one day experiences.
Yes, darkness has so many contours
But light lights up all the recesses!
Light, yes, natural light, is life giving
Its modes and colors keep on altering.
It may swap sunning for burning, Or
It may melt the heart, it’s so softening!
I wish everyone a very happy Diwali
Be he Chandan, Changez, or Charlie!
Look for this lively wizard inside you
Where there transpires nonstop Diwali!
Your chum
Ajit Sambodhi
Monday, September 16, 2024
है कोई अपना?
Monday, August 26, 2024
कान्हा
ये दुनिया तुम्हारी, और मैं भी तुम्हारा, कान्हा
तुम आते रहे हो अब आ जाओ फ़िर से कान्हा
कितने जन्मों से तुमको पुकारता आ रहा हूँ मैं
अबके न फ़िर से मायूस करो, मुझको कान्हा।
तुमने चरण धोये अपने बाल मित्र के, ऐ कान्हा
अबकी बार अपने चरण हमसे धुला लो कान्हा
तुम तो लीला दिखाने में माहिर हो बेहद कान्हा
अबके मेरे आँगन में भी दिखा दो खेला कान्हा।
तुम्हारे सिवाये, अब कहाँ पे ढूँढूँ सहारा, कान्हा
मेरे मन का अँधेरा कैसे मिटेगा, बताओ कान्हा
रिझावों भुलावों का सहारा नहीं चाहिए, कान्हा
तेरी रहमत के सिवा मुझे कुछ न चाहिये कान्हा।
मेरी आँखों के ये आँसू तो कभी देख ले, कान्हा
ये जमुना की धारा है, तट पे फ़िर आजा कान्हा
ये दिल की वादियाँ कब से सूनी पड़ी हें कान्हा
कभी बाँसुरी फ़िर से इनमें बजा तो दे, कान्हा।
कन्चन - कामिनी से न बहलाना मुझको कान्हा
इन खिलोनों से न मैं बहल पाऊँगा अब, कान्हा
तू अब बना ले मुझको अपना पसन्दीदा कान्हा
तमन्ना है कि उँगली पकड़ के चलूँ तेरी कान्हा।
तुम्हारी मुस्कुराहट का कोई सानी है क्या कान्हा
तुम शरारत करते थे और मुस्कुरा देते थे कान्हा
तुम मक्खन चुराते थे और मटकी फोड़ते थे कान्हा
पर तुम्हारी मुस्कुराहट सबको रिझाती थी कान्हा।
जय कान्हा कुन्जबिहारी की
अजित सम्बोधि
Saturday, July 13, 2024
क़दमबोसी की चाहत कबसे कर रहा हूँ
मालिक तेरा फ़ज़ल है, जिससे मैं जी रहा हूँ
Saturday, June 1, 2024
नज़रों से पर नज़र न आए ।
Tuesday, May 14, 2024
शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है।
किसके लिये ये समाँ सज रहा है
शब-ओ-रोज़ ये दिया जल रहा है?
क्या आसमाँ को यक़ीं हो रहा है
फ़रिश्ता ए नूर इधर आ रहा है?
खड़ी थी साहिल पे अरसे से कश्ती
क्या उसे अब माँझी नज़र आ रहा है?
क्या बहारों ने पैग़ाम अब दे दिया है
फ़ुरकत का वक़्त बिदा हो रहा है?
कोई भी रिश्ता हो, अभी का नहीं है
हर रिश्ता अज़ल से चला आ रहा है
रूहों से ही सदा, जिस्म सजते रहे हें
ये दस्तूर पुराना है, चला आ रहा है ।
न कोई था जुदा और न होगा जुदा
जिस्मानी चोग़ा ही बदलता रहा है।
मुद्दतों से सिलसिला चलता रहा है
वही नूर बनके यहाँ पे बह रहा है ।
शब-ओ-रोज़ = रात दिन।
फुरकत=जुदाई। अज़ल= प्रारम्भ।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।