कुछ नीला सा भूरा रंग लिए हुए
हवा भी धीरे से, सरसरा रही थी
इक ग़मग़ीन सा अंदाज़ लिए हुए।
गंगा मंत्रमुग्ध सी बहे जा रही थी
न शांत न बेचैन, बढ़े जा रही थी
लगता था जाना है कहीं दूर उसे
मिलने किसी से, चले जा रही थी।
मैं पैड़ियों पे ख़ुद को, सम्हाले हुए
खड़ा था पोटली हाथ में लिए हुए।
निरख रहा था, गंगा को बहते हुए
और आसमाँ को , भेद समेटे हुए।
ये मूक दर्शक हैं सदियों से यहाँ पे
देखा है तार तार दिलों को यहाँ पे
देखा है अपनों को जुदा होते यहाँ
जो सोचे थे साथ आने को यहाँ पे।
बादल को मुझ पर , तरस आ गया
वो आकर मुझ पर बरसने लग गया
पुजारी ने कहा , अब न देर कीजिए
पोटली को बहाने का वक्त आ गया।
वही जो कभी मेरी क़िस्मत रही थी
मैं ख़ुदा था, वो नाख़ुदा मेरी रही थी
वो सिमट कर, आज इस पोटली में
गंगा के हाथों में , सुपुर्द हो रही थी।
नाख़ुदा= नाव खेने वाली/ वाला।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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