दिलों के सिवा कोई जानेगा क्या
जन्मों से जो चला आ रहा
अब जाके वो बदलेगा क्या?
उन्होंने ही माना था सब कुछ मुझे
उन्होंने ही पहिचान दी थी मुझे
मैं तो अकेला गुमसुम सा था
उन्होंने ही मुस्कान दी थी मुझे।
अचानक ही अब ये क्या हो गया
ज़माने ने बदली है रफ़्तार क्या?
उनका जो साथ मुझको न मिलता
मुश्किल में हाथ मुझको न मिलता
अकेला कहाँ तक मैं ज़ुल्मत को सहता
उनका सहारा जो मुझको न मिलता।
लाकर यहाँ तक क्यों छोड़ा मुझको
मुझको बता दो मेरी ख़ता क्या?
सौंपूँ मैं ख़ुद को हाथों में तेरे
उनके ही अल्फ़ाज़ मैं कह रहा हूँ
मुझको ज़रूरत है हरदम तुम्हारी
अपने ही अल्फ़ाज़ दुहरा रहा हूँ।
कहीं ऐसा ना हो रब ही ये पूँछे
रज़ा उससे पहले ले ली थी क्या?
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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