क़रीब आते डर लगता है जैसे कुसूर है।
वक़्त कभी भी लौट कर नहीं आता
यादें हैं कि उन्हें बुलाना नहीं पड़ता।
पूछा कैसे हैं?बोला, जैसा पहले था
आपको पता ही है, पहले कैसा था।
अब क्या बताऊं ज़ख़्मो हालात , ख़ुद के
ज़िंदगी गुज़री है, जवाब देते सवालात के।
जो ख़ुद नहीं समझते , मुझे समझा देते हैं
ज़रूरत है दुआ की, कोई दवा थमा देते हैं।
बोलते इतना हैं , अंदर का सुन नहीं पाते हैं
कमाई के अलावा कुछ भी देख नहीं पाते हैं।
क्या कोई बता देगा मुझको , सनद रखने के लिए
कितना कमाना चाहिए, खाली हाथ जाने के लिए?
ज़ुबान हल्की होती है, इसे हल्के में न लें , साहिब
बड़ा भारी होता है इसे सम्हाल के रखना, साहिब।
किस किस के सामने सही साबित करूं ख़ुद को
ज़ाहिर है, लोग तो बतायेंगे सही हमेशा, ख़ुद को।
फ़र्क़ नहीं पड़ता , क्या हादसा होता है
कुसूर हर मर्तबा, नक़दख़ां का होता है।
ख़ामोशी से बड़ा कोई सहीफ़ा नहीं होता है
उसमें हर सवाल का जवाब, लिखा होता है।
मालिक, तेरा नूर ज़हूर है, पर बड़ा दूर है
मैं तो मज़बूर हूं, पर क्या तू भी मज़बूर है?
कोई तुझ जैसा तो अभी तक मिला नहीं
हक़ीक़त ये कि, तू भी अभी मिला नहीं।
नक़दख़ां= स्वयं। सहीफ़ा= किताब। ज़हूर= प्रकट।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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