कहाँ गया वो ज़माना जब मकान कच्चे होते थे
लोग बात के पक्के, और दिल के सच्चे होते थे।
ऐसे लोग बहुत देखने को मिल जाया करते थे
जो चेहरे से तो बूढ़े, मगर दिल से बच्चे होते थे।
तीसरा पहर था, मेरे नाना घर खाना खाने आए
बैसाख की धूप थी, खेत से पैदल चल कर आए
देखा कि मैं रूठा हुआ बैठा हूँ, बात नहीं कर रहा
उन्होंने खाना नहीं खाया, मुझको मनाने को आए।
पूछा क्यों रूठे हो ललन, खाना क्यों नहीं खाया?
हमने कहा हमें लट्टू चाहिए, इसलिए नहीं खाया।
उन्होंने कहा खाना खा लो, फ़िर दिला लाएँगे लट्टू
सीधा सा सुझाव था पर हमारी समझ में न आया।
हमने कहा पहिले लट्टू लेंगे, फिर ही खाना खाएँगे
नाना ने कहा ठीक है, हम भी फिर ही खाना खाएँगे।
उन्होंने मुझे कंधे पे बिठाया और धूप में ही चल पड़े
तरखान और गाँव में है, वो बोले, अभी पहुँच जाएँगे।
जब लौटे, धूप ढल चुकी थी और शाम हो चली थी
मुझको नींद आ रही थी, हवा में ठण्डक हो चली थी।
नाना ने गोद में बिठा के मुझको खाना खिलाया था
खाते खाते में हरदम से, मेरी गर्दन ढुलकती चली थी।
क्या वक़्त था, क्या नज़ारा था , मैं आज सोचता हूँ
कितना ख़ुशनसीब था, ख़ुशहाल था , मैं सोचता हूँ।
मैं सोया हुआ था और मुझे कुछ भी एहसास न था
मगर नाना जागते थे, मन भर गया होगा, सोचता हूँ।
तरखान=Carpenter.
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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