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Saturday, June 21, 2025

योग दिवस 2025

कहते हैं  आज योग दिवस है 

भला इसमें क्या असमंजस है 

योग एक ऐसा पूर्ण  विधान है

जो दायमी है, बेहद मुकद्दस है।


योग तो एक शाश्वत विधा है 

जो दूर कर देती हर दुविधा है 

जिस्म को  रूह से मिलाने की 

सभी को उपलब्ध ये सुविधा है।


हर दिवस ही योग दिवस है 

सबके लिए ही ये सरबस है 

जिन्हें रूह से रूबरू होना है 

उनके लिए  अहम ढाढ़स है।


योग का अर्थ  होता है  जोड़ना 

ज़रूरी है इस बात को समझना 

एक रास्ता जो रूह तक जाता है 

योग से है उस रास्ते को खोजना।


दायम = eternal. मुकद्दस = पवित्र।

सरबस = सर्वस्व। रूबरू = सन्मुख।


ओम शान्ति:

अजित सम्बोधि 


Thursday, June 12, 2025

मेरा चाँद और मैं

आसमान साफ़ था 

सामने चाँद था 

मध्य रात्रि का वक़्त था 

शायद दूसरा पहर था 

 चाँद में सुहास था 

मौसम में सुवास था 

 कुछ ऐसा एहसास था 

बल्कि पूरा विश्वास था 

पक्षी का परिहास था 

 श्वास निश्वास था 

हवा बह रही थी 

और कह रही थी 

मिलने का यही 

तो वक़्त है सही 

चलो एक गीत गुनगुना लें

कुछ पुरानी यादें दुहरा लें 

जब भी हम मिले थे 

हम दोनो अकेले थे 

भीड़ भाड़ से अलग 

उखाड़ पछाड़ से अलग 

 चाहे भीड़ हो 

या भाड़ हो 

दोनों में क्या फ़र्क़ है 

दोनों ही ज़र्कबर्क हें 

भाड़ में भभकते हें 

भीड़ में  भोंकते हें 

यहाँ सुकूत था 

आसमाँ अभिभूत था 

मौसम का मज़मून था 

चाँद का जुनून था 

शोशा अफ़लातून था ?

 नहीं, सब पुरसुकून था!

 चाँद गोलमोल था 

पूरा सुडोल था 

करता कलोल था 

अमोल था अनमोल था।


ज़र्कबर्क = तड़क भड़क। सुकूत = शान्त।

मज़मून = लेख। जुनून = गहरी रुचि।

 शोशा = चुटकुला। अफ़लातून = Plato.

 पुर सुकून = चैन से भरपूर।


ओम शान्ति:

अजित सम्बोधि।

Tuesday, June 3, 2025

दिखते हो तुम

 ये ना समझना मैं चला जाऊँगा 

मैं  तुमको  तुम्हीं  से ले के रहूँगा 

चला हूँ मैं अब तक जितने क़दम

आसमाँ ने देखा किया दम ब दम

पर आसमाँ से अलग हो क्या तुम?

 जिधर देखो उधर दिखते हो तुम!


तुम्हारे  जैसा अलबेला  तो  हूँ नहीं 

सबको पसन्द आऊँ नवेला भी नहीं 

दिखने  में तो अकेला ही दिखता हूँ 

 लुकाछिपी में  ऐसा ही  दिखता हूँ 

 किसी को कैसे बताऊँ कैसे हो तुम 

हर पल निराले रंग में दिखते हो तुम!


पूछते हो कि मैं क्या किया करता हूँ?

तो मैं बताऊँ कि मैं इबादत करता हूँ 

अक्सर तो फ़रियाद किया करता हूँ 

कभी कभी मैं रोने भी लगा करता हूँ 

मैं कहता हूँ कि मैं रो रहा हूँ और तुम 

सिर्फ़ सिर्फ़ मुस्कराते दिखते हो तुम।


 ओम शान्ति:

अजित सम्बोधि