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Sunday, May 1, 2022

सबीर हका के नाम

आज  मज़दूर  दिवस  है

एकसौ बत्तीसवाँ बरस है ।

कौन होते हें  ये  मज़दूर  

वे ही जो होते है मज़बूर ?

सभी को देते जो मकान 

ख़ुद के होते नहीं मकान ?

मज़दूरनी के गर्भ में आते हें 

तब से  मज़दूर बन जाते हें ।

ये सबीर हका  कह रहा है 

एक  मज़दूर  कह  रहा  है । 

बिना खिड़की का कमरा 

किराए पर मिला कमरा। 

आसमान को कहता मैं घर 

इस  को  कैसे कहूँ  मैं घर ? 

छह  लोग  रहते  हें  इसमें 

अहले  बैत रहते  हें  इसमें। 

मौत से भी  डर लगता अब  तो 

उस जहाँ में भी मज़दूर बना तो ? 

पुलिस  मुझे तलाश कर  रही है 

क्या सरकार नज़्मों से डर रही है ? 

सब किताबें क़ब्र में ले जाऊँगा 

अपने साथ इन्हें दफ़्न कर दूँगा । 

ॐ           ॐ           ॐ

सबीर,  सुनो  तुम  साबिर  हो 

हका, तुम  हक़ के शाकिर  हो । 

तुमने तो  एक ख़्वाब  देखा था 

तुमको तो  एक घर  देखना था ।

ऊँची इमारत चढ़ के देखना था 

दिल को सजाए, उसे देखना था । 

तुमने कहा है ख़ुदा भी मज़दूर है

हाँ, उसका मकान बड़ा ज़रूर है । 

मज़दूर होना कोई गुनाह नहीं है 

मज़दूर कोई भी बेपनाह  नहीं है । 

आसमान  को तुमने  माना है घर 

ज़मीन पर  भी मिल  जाएगा घर ।

जिसको तलाश  कर रहे  हो बराबर 

दिल में आ  बैठे, मिलेगा वो दिलबर। 

हमारी   दुआयें  तुम्हारे   साथ  हें 

मालिक का करम तुम्हारे साथ है ।

ॐ             ॐ                ॐ

अहले बैत = घर के लोग ।साबिर = धैर्यवान । हक़ = रब ।

शाकिर = क्रतज्ञ । दिलबर= प्रेमी । करम = क्रपा ।

ओम् शान्ति:

अजित सम्बोधि।


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