आज मज़दूर दिवस है
एकसौ बत्तीसवाँ बरस है ।
कौन होते हें ये मज़दूर
वे ही जो होते है मज़बूर ?
सभी को देते जो मकान
ख़ुद के होते नहीं मकान ?
मज़दूरनी के गर्भ में आते हें
तब से मज़दूर बन जाते हें ।
ये सबीर हका कह रहा है
एक मज़दूर कह रहा है ।
बिना खिड़की का कमरा
किराए पर मिला कमरा।
आसमान को कहता मैं घर
इस को कैसे कहूँ मैं घर ?
छह लोग रहते हें इसमें
अहले बैत रहते हें इसमें।
मौत से भी डर लगता अब तो
उस जहाँ में भी मज़दूर बना तो ?
पुलिस मुझे तलाश कर रही है
क्या सरकार नज़्मों से डर रही है ?
सब किताबें क़ब्र में ले जाऊँगा
अपने साथ इन्हें दफ़्न कर दूँगा ।
ॐ ॐ ॐ
सबीर, सुनो तुम साबिर हो
हका, तुम हक़ के शाकिर हो ।
तुमने तो एक ख़्वाब देखा था
तुमको तो एक घर देखना था ।
ऊँची इमारत चढ़ के देखना था
दिल को सजाए, उसे देखना था ।
तुमने कहा है ख़ुदा भी मज़दूर है
हाँ, उसका मकान बड़ा ज़रूर है ।
मज़दूर होना कोई गुनाह नहीं है
मज़दूर कोई भी बेपनाह नहीं है ।
आसमान को तुमने माना है घर
ज़मीन पर भी मिल जाएगा घर ।
जिसको तलाश कर रहे हो बराबर
दिल में आ बैठे, मिलेगा वो दिलबर।
हमारी दुआयें तुम्हारे साथ हें
मालिक का करम तुम्हारे साथ है ।
ॐ ॐ ॐ
अहले बैत = घर के लोग ।साबिर = धैर्यवान । हक़ = रब ।
शाकिर = क्रतज्ञ । दिलबर= प्रेमी । करम = क्रपा ।
ओम् शान्ति:
अजित सम्बोधि।
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